छत्तीसगढ़ का भारत के इतिहास में प्राचीन समय से लेकर आज तक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, छत्तीसगढ़ की सभ्यता और संस्कृति पूरे देश को सदैव आकर्षित करती रही है। धान का कटोरा की संज्ञा से अभिहित किये जाने वाले इस अंचल की चेतना विकासोन्मुखी रही है। ब्रिटीश साम्राज्य की स्थापना से पूरे भारत के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में ब्रिटीश सत्ता के शोषण, अत्याचारों एवं भ्रष्टाचार पूर्ण शासन से छत्तीसगढ़ की जनता असंतुष्ट थी।
छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद गैद सिंह:- ब्रिटिश एवं मराठा शासन के अत्याचार से बस्तर के परलकोट क्षेत्र में अबूझमाड़ आदिवासियों के साथ लूटखसोट, शोषण एवं अत्याचार सैनिकों द्वारा किया जाने लगा । तब अबूझमाडि़यों आदिवासियों के द्वारा परलकोट के जमींदार गैदसिंह के नेतृत्व में 1818 में अंग्रेजी फौज को मार भगाने के लिए संघर्ष प्रांरभ हुआ । इस संघर्ष में हजारों आदिवासी शामिल हुए । बस्तर में मराठों और ब्रिटिश अधिकारियों की उपस्थिति से अबूझमाडि़यों को अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था । परलकोट के जमीदार गैदसिंह के नेतृत्व में अबूझमाडि़यों ने मराठों को रसद आपूर्ति में सहायक बंजारों को लूटा, मराठों और अंग्रेजों पर आक्रमण किये। 24 दिसम्बर 1824 को मराठों एवं अंग्रेज अधिकिारियों के शोषण नीति के विरूद्ध जमीदार गैदसिंह के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। 20 जनवरी 1825 को परलकोट के जमींदार गैदसिंह को फांसी दे दी गई।
शहीद वीरनारायण सिंह:- 1857 में छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल पड़ा, लोग भूख से मरने लगे, अंग्रेजी शासन की ओर से कोई व्यवस्था नही की गई थी। अपितु जमाखोर एवं साहूकारों ने अपने गोदामों में अनाज भरकर रख लिये थे। उस समय देश में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह प्रांरभ हो गया था। जनता की स्थिति को देखकर सोनाखान के जमीदार वीरनारायण सिंह ने साहूकारों की कोठरी से अनाज निकालवाकर भूखों के बीच बटवा दिया जिसके लिए उन्हें ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंद कर दिया । वीरनारायण सिंह 1857 के विद्रोह में सम्मिलित होने के लिए जेल से भाग कर सोनाखान में फौजी टूकड़ी संगठित कर मुकाबले की तैयारी शुरू कर दी। वीर नारायण सिंह को संधि के बहाने गिरफ्तार कर उन पर राजद्रोह मुकदमा चलाकर रायपुर नगर के बीच चैराहे वर्तमान जयस्तंभ चौक के पास 10 दिसम्बर 1857 को फांसी दे दी गई।
रायपुर फौजी छावनी का विद्रोह:- शहीद वीरनारायण सिंह का त्याग और बलिदान व्यर्थ नही गया। 18 जनवरी 1857 संध्या 7:30 बजे मैग्जीन लश्कर हनुमान सिंह ने तीसरी टुकड़ी के सार्जेट मेजर रिसडवेल की हत्या कर विद्रोह प्रांरभ कर दिया। उनके सहयोगी सिपाही जो विद्रोह में सम्मिलित हुए उन्हें 22 फरवरी 1858 को सरे आम फांसी पर लटका दिया गया । यह फौजी छावनी का स्थान आज कल पुलिस ग्राउंड कहलाता है। शहीद हुए 17 सिपाहियों का नाम इस प्रकार हैः- गाजी खां, अब्दुलहयात, मुलीस, शिवनारायण, पन्नालाल, मातादीन, ठाकुरसिंह, बिल्हु, अकबर हुसैन, लल्लासिंह, बदलु, नजर मोहम्मद, शिवगोविन्द, देवी दीन ।
पराक्रमी सेनापति गुण्डाधुर:- सन् 1910 में बस्तर में ब्रिटीश शासन के विरूद्ध भूमकाल इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। बस्तर का विद्रोह लाल कालेन्द्र सिंह और रानी सुमरन कुंवर ने अंग्रेजों के अत्याचार एव अन्याय के विरोध प्रांरभ किया । इस आंदोलन का सेनापति गुण्डाधुर को चुना गया । इस विद्रोह मे सैकड़ो की संख्या में बस्तर के आदिवासी शहीद हुए । गिरफ्तार किये गये विद्रोही नेताओं में से अधिकांश रायपुर तथा चन्द्रपुर की जेल में बंदी बनाये गये। अधिकांश जेल में ही शहीद हो गये। छत्तीसगढ़ में 1910 का बस्तर का बस्तर में आदिवासी विद्रोह, रतनपुर में विद्रोह, 1911 में उरांव जाति का विद्रोह आदि ऐसे घटनाएं थी जो यहां के अरण्यांचल को प्रभावित कर रही थी।
भारतीय संस्कृति के मूलसंवाहक आदिवासी समुदाय ही रहे है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के शोषण चक्र से निजात पाने हेतु बस्तर कांकेर के आदिवासियों, राज-परिवार के सदस्यों और जमीदारों ने विद्रोह का शंखनाद किया था । भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बस्तर के आदिवासी विद्रोह की एक लम्बी परम्परा तथा निर्णायक भूमिका रही है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बस्तर के आदिवासियों ने अपनी निर्णायक भूमिका अदाकर इस बात का प्रमाण प्रस्तुत किया कि मुख्यधारा से दूर रहकर भी वे राष्ट्र की नसों को भली-भांति जानते थे, परखते थे तथा राष्ट्र के प्रति उनकी भावनाएं अन्य व्यक्तियों के सामन ही थी ।
बस्तर में मराठों और अंग्रेजो अधिकारियों की लूट-खसोट और शोषण की नीति के खिलाफ सर्वप्रथम परलकोट के जमीदार गेंदसिंह ने 24 दिसम्बर 1824 ई. को विद्रोह किया था इस विद्रोह के माध्यम से अबूझमाडि़यों ऐसे संसार की रचना करना चाहते थें, जहां लूटखसोट और शोषण न हो। बस्तर में मराठों और ब्रिटिश अधिकारियों की उपस्थित से अबूझमाडि़यों को अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था। परलकोट के जमींदार गैंदसिंह के नेतृत्व में अबूझमाडि़यों ने मराठों को रसद आपूर्ति में सहायक बंजारों को लूटा, मराठों और अंग्रेजों पर आक्रमण किये।
परलकोट का विद्रोह बस्तर में विदेशी सत्ता को धूट चटाने के लिए हुआ था। यह विद्रोह बस्तर को गुलामी से मुक्त कराने का प्रथम प्रयास था। 10 जनवरी 1825 ई. को चांदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेव के नेतृत्व में मराठों और अंग्र्रेजों की सम्मिलित सेना ने परलकोट के विद्रोह का दमन किया । 20 जनवरी 1825 ई. को परलकोट के जमींदार गैदसिंह को फांसी दे दी गयी ।
बस्तर के दीवान जगबन्धु द्वारा तारापुर के परगने के लोगों पर नित्य नये कर लगाये जाते थें। इन करों से तारापुर परगने के आदिवासी काफी रुष्ट थे। 1842 ई. में तारापुर के आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया । वे मांग कर रहे थे कि जब तक सारे कर वापस नहीं लिये जाते और उसे अपने नेता दलंगजन सिंह के हाथों सौंप दिया । नागपुर के रेजीडेन्ट मेजर विलियम्सन ने जगबन्धु को पद से हटा दिया और आदिवासियों पर लगने वाले करों को वापस ले लिया था । बस्तर के इतिहास में यह विद्रोह तारापुर का विद्रोह ( 1842-1854) के नाम से प्रसिद्ध है।
1842 ई. में दंतेवाड़ा की आदिम जनजातियों ने आंग्ल मराठा शासन के खिलाफ आत्मरक्षा के निमित अपनी परम्परा और रीति रिवाजों पर होने वाले आक्रमण के विरूद्ध विद्रोह किया था। यह विद्रोह मेरिया विद्रोह (1842 से 1863ई.) के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रिटिशों ने बस्तर में दंतेवाड़ा मंदिर में प्रचलित नरबोले के संस्कार मेरिया या नरबलि को समाप्त करने के लिए बस्तर के राजा भूपालदेव को आदेश दिया था नर बलि को रोकने के लिए नागपुर के भोंसला राजा ने एक सुरक्षा टुकड़ी दंतेवाड़ा के मंदिर में नियुक्ति की थी। दंतेवाड़ा के आदिवासियों ने इसे अपनी परम्पराओं पर बाहरी आक्रमण समझा और विद्रोह कर दिया । हिड़मा माडि़या के नेतृत्व में विद्रोहियों ने सैनिक पर आक्रमण किया । अन्त में रायपुर से आयी हुई सेना ने विद्रोहियों का दमन किया ।
ब्रिटिश सरकार से राजा भैरमदेव दीवान दलगंजन सिंह और आदिवासी जनता काफी असंतुष्ट थी। लिंगागिरी के तालुकेदार धु्रर्वाराव के नेतृत्व में विद्रोहियों ने 1856 ई. में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। बस्तर के इतिहास में इस 1856 ई. के महान मुक्ति संग्राम कहा जाता है। विद्रोहियों ने गांवों को लूटा और माल के लदी बैलगाडि़यों पर कब्जा किया। 3 मार्च 1856 ई. को चिन्तलनार में अग्रेजों और विद्रोहियों के मध्य संघर्श हुआ। अंग्रेजों ने 460 माडि़या औरतों व बच्चों को बंदी बनाया और धुर्वाराव को पकड़कर फांसी दी । लिंगागिरी परगने को भोपालपटनम जमीदारी में मिला दिया गया ।
1859 ई. में दक्षिण बस्तर में स्थिति भेजी, फोतफेल और कोतापल्ली के कोई जमींदारों ने शालवृक्षों के काटे जाने के खिलाफ विद्रोह किया था। कोईयों द्वारा किये गये विद्रोह को कोई विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह का मूल कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा यहां के जंगलों को हैदराबाद के व्यापारियों को ठेके पर दिया गया था। अन्त में सभी मांझी प्रमुखों ने निर्णया किया कि वे बस्तर में साल सागौन का एक भी वृक्ष काटने नहीं देगें । विद्रोहियों ने एक साल या सागौन वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर का नारा दिया। इस विद्रोह की भयानकता को देखकर ग्लासफर्ड ने अपनी हार मान ली और उसने बस्तर में लकड़ी ठेकेदारी की प्रथा समाप्त कर दी ।
1876 ई. में अंग्रेजों के आर्थिक शोषण के खिलाफ बस्तर के आदिवासियों ने विद्रोह किया था । बस्तर के इतिहास में इस विद्रोह को 1876 ई. का मुरिया विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह का प्रमुख कारण अंग्रेजी शासन द्वारा कृषि का व्यापारीकरण करना था। जिसमें रयैतवाडी प्रथा, लगान, अदा न करने पर भूमि अधिग्रहण। स्टाफ एक्ट, जंगल की लकड़ी पर कर, शराब भट्टियों पर उत्पाद शुल्क लगा दिया गया । जिसकी ग्राम प्रमुख बेरहमी से वसूली करते थे जिससे विद्रोह की शुरूआत हुई। 2 मार्च 1876 को विद्रोहियों ने महल को घेर लिया अन्त में मैकजार्ज की मर्यादा तथा संयम के कारण विद्रोह को दबाया जा सका। नैतिक कारणों से आदिवासी जीता हुआ युद्ध हार गये। किन्तु इस मुरिया विद्रोह ने 1910 ईं. के महान विद्रोह को प्रेरणा प्रदान की थी।
1910 ई. में बस्तर के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया था। इन विद्रोह का प्रमुख लक्ष्य बस्तर में मुरिया राज की स्थापना और ब्रिटिश राज को नेस्तनाबूद करना था।
बस्तर के आदिवासियों ने अंग्रेजों के अत्याचारों से रुष्ट होकर लाल कालेन्द्र सिंह के नेतृत्व में अक्टूबर 1909 ई. में अंग्रेजों के खिलाफ जंग का एलान किया। विद्रोहियों ने काफी गोपनीय ढंग से तैयारी की थी । विद्रोहियों की इस गुप्त तैयारी से पोलिटिकल एजेन्ट डिबे्रट भी बेखबर था। 1 फरवरी 1910 ई. को विद्रोह प्रांरभ हुआ, विद्रोहियों ने लूटमार तथा आगजनी थी। आगामी तीन महिनों तक बस्तर के आदिवासी अंग्रेजी से लड़ते रहे। 7 फरवरी 1910 ई. में विद्रोहियों ने गीदम में गुप्त सभा आयोजित कर मुरियाराज की घोषणा की थी। विद्रोहियों ने बारसूर, कोण्टा, कुटरू, कुंआकोण्डा मद्देड़, भोपालपटनम, जागरगुण्डा, उसूर, छोटे डोंगरे, कुतुल और बहीगांव पर आक्रमण किये । 16 फरवरी 1910 ई. को अंग्रेजों और विद्रोहियों के मध्य खड़गघाट पर भीषण संघर्ष हुआ था। 24 फरवरी गंगामुंडा में विद्रोहियों की पराजय हुई। 25 फरवरी 1910 ई. को अलनार में विद्रोहियों ने गुंडाधूर के नेतृत्व में अंग्रेजो के साथ संघर्ष किया । 25 मार्च 1910 ई. को विद्रोहियों ने नेतानार में गेयर पर हमला किया। अंग्रेजो ने 6 मार्च 1910 ई. से विद्रोहियों का बुरी तरह से दमन करना शुरू किया, लाल कालेन्द्र सिंह, और राजमाता सुवर्ण कुमारी देवी को अंग्रेजो ने गिरफ्तार किया । इस विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने आदिवासी संस्थाओं को सम्मान देते हुए आदिवासियों से जुड़ने का प्रयास किया ।
बस्तर -कांकेर में जनजागरण:-
भारतवर्ष में जिन कारणों के फलस्वरूप राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ, उनसे बस्तर-कांकेर भी प्रभावित हुये बिना न रह सका। यहां भी असंतोष के स्वर मुखरित हुये, जिससे बस्तर-कांकेर में राष्ट्रीय चेतना का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार यह क्षेत्र भी देश की मुख्यधारा से जुड़ा रहा ।
कांग्रेस ने बंबई के अधिवेशन में ऐतिहासिक प्रस्ताव अंग्रेजो भारत छोड़ो पारित किया भारत छोड़ों आंदोलन से बस्तर भी प्रभावित हुये बिना न रह सका । जगदलपुर में श्री पी.सी. नायडू के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया गया । जगदलपुर में नायडू द्वारा सोडा फैक्ट्री चलायी जाती थी। श्री पी.सी. नायडू के नेतृत्व में मोहसिन और उसके साथियों ने एक रात्रि में जगदलपुर स्कूल में स्थित यूनियन जैक को फ्लेग पोस्ट सहित जलाकर राख कर दिया। श्री नायडू ने कांकेर सहित अनेक स्थानों का दौरा कर कांग्रेस स्थापना में अपनी महत्वपूर्ण योगदान किया था।
ठाकुर प्यारे लाल सिंह के प्रयासों के कारण 1945 ई. में कांकेर में कांग्रेस पार्टी की स्थापना हो सकी। आदिवासी नेता रामप्रसाद पोटाई को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पं. गोविन्द प्रसाद शर्मा को महामंत्री और अजित कुमार भट्टाचार्य को उपाध्यक्ष बनाया गया था। कांकेर, भानुप्रतापपुर और चारामा के लिए कांग्रेस पार्टी की अलग से मंडल समितियां गठित की गई थी।
कांकेर रिसायत में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का श्रेय सुरंगदाह ( दुर्ग कोदल) निवासी इंदरू केवट नामक व्यक्ति को है। वे महात्मागांधी के सच्चे भक्त और अनुयायी थें। इन्दरू केवट महात्मा गांधी की तरह साधारण धोतीधारण कर हाथ में झंडा लेकर गांव-गांव में गांधी जी और कांग्रेस की जय-जयकर करते हुए पैदल घुमते थे और गांधी जी के सिन्द्धातों का प्रचार करते थे। इन्दरू केवट के कारण कांकेर रियासत की जनता राष्ट्रीय नेताओं के नामों, कांग्रेस के सिद्धांतों व कार्यक्रमों तथा तिरंगे झंडे से परिचित हो सकी।
1942 ई. के भारत छोड़ो आंदोलन में विश्णु प्रसाद शर्मा ने सक्रिय भूमिका अदा की। अक्टूबर 1942 ई. में वे क्रांतिकारी नेता सुधीर मुखर्जी से जुडें । 1942 ई. में शर्मा स्टूडेण्ट ऑफ इंडिया शाखा रायपुर के सदस्य बनें। 1943 ई. में वे कांग्रेस के सदस्य बने। 1945 ई. में शर्मा जी ने रायपुर के छात्रों का नेतृत्व किया। वे रायपुर के छात्रों को दिल्ली ले गये, दिल्ली में उन्होंने वायसराव लार्ड बावेल के खिलाफ तीन दिनों तक प्रदर्शन किया था।