राजिम के प्रसिद्ध राजीवलोचन का मन्दिर चतुर्थाकार में बनाया गया था। उत्तर में तथा दक्षिण में प्रवेश द्वार बने हुए हैं। महामंडप के बीच में गरुड़ हाथ जोड़े खड़े हैं। गर्भगृह के द्वार पर बांये-दांये तथा ऊपर चित्रण है, जिस पर सर्पाकार मानव आकृति अंकित है एवं मिथुन की मूर्तियां हैं। पश्चात् गर्भगृह में राजिवलोचन अर्थात् विष्णु का विग्रह सिंहासन पर स्थित है। यह प्रतिमा काले पत्थर की बनी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है। जिसके हाथों में शंक, चक्र, गदा और पदम है जिसकी लोचन के नाम से पूजा होती है। मंदिर के दोनों दिशाओं में परिक्रमा पथ और भण्डार गृह बना हुआ है।
महामण्डप बारह प्रस्तर खम्भों के सहारे बनाया गया है।
उत्तर दिशा में जो द्वार है वहां से बाहर निकलने से साक्षी गोपाल को देख सकते हैं। पश्चात् चारों ओर नृसिंह अवतार, बद्री अवतार, वामनावतार, वराह अवतार के मन्दिर हैं।
दूसरे परिसर में राजराजेश्वर, दान-दानेश्वर और राजिम भक्तिन तेलिन के मंदिर और सती माता का मंदिर है।
इसके बाद नदियों की ओर जाने का रास्ता है। यहां जो द्वार है वह पश्चिम दिशा का मुख्य एवं प्राचीन द्वार है। जिसके ऊपर राजिम का प्राचीन नाम कमलक्षेत्र पदमावती पुरि लिखा है।
नदी के किनारे भूतेश्वर व पंचेश्वर नाथ महादेव के मंदिर हैं और त्रिवेणी के बीच में कुलेश्वर नाथ महादेव का शिवलिंग स्थित है।
राजीवलोचन मंदिर यहां सभी मंदिरों से प्राचीन है। नल वंशी विलासतुंग के राजीवलोचन मंदिर अभिलेख के आधार पर इस मंदिर को 8 वीं शताब्दी का कहा गया है। इस अभिलेख में महाराजा विलासतुंग द्वारा विष्णु के मंदिर के निर्माण करने का वर्णन है।
राजीवलोचन की विग्रह मूर्ति के एक कोने में गजराज को अपनी सूंड में कमल नाल को पकड़े उत्कीर्ण दिखाया गया है। विष्णु की चतुर्भुज मूर्ति में गजराज के द्वारा कमल की भेंट और कहीं नहीं मिलती।
इसके बारे में जो कहानी प्रचलित है वह इस प्रकार है: ग्राह के द्वारा प्रातड़ित गजराज ने अपनी सूंड में कमल के फूल को पकड़कर राजीव लोचन को अर्पित किया था। इस कमल के फूल के माध्यम से गजराज ने अपनी सारी वेदना विष्णु भगवान के सामने निवेदित की थी। विष्णु जी उस समय विश्राम कर रहे थे। महालक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं। गजराज की पीड़ा को देखते ही भगवान ने तुरंत उठकर नंगे पैर दौड़ते हुए राजीव क्षेत्र में पहुंचकर गजराज की रक्षा की थी।
राजिम में कुलेश्वर से लगभग 100 गज की दूरी पर दक्षिण की ओर लोमश ॠषि का आश्रम है। यहां बेल के बहुत सारे पेड़ हैं, इसीलिए यह जगह बेलहारी के नाम से जानी जाती है। महर्षि लोमश ने शिव और विष्णु की एकरुपता स्थापित करते हुए हरिहर की उपासना का महामन्त्र दिया है। उन्होंने कहा है कि बिल्व पत्र में विष्णु की शक्ति को अंकित कर शिव को अर्पित करो। कुलेश्वर महादेव की अर्चना राजिम में आज भी इसी शैली में हुआ करती है। यह है छत्तीसगढ़ की धार्मिक सद्भाव का उदाहरण।
[राज बख्तानी जी द्वारा साझा किया गया ]