छत्तीसगढ़ और मराठा शासन -
छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में सन् 1741 ई. परिवर्तन का काल माना जाता है।
भास्कर पंत थे भोंसला शासक के सेनापति। नागपुर के भोंसला। भास्कर पंत ने जब रतनपुर राज्य पर आक्रमण किया, उस समय रघुनाथसिंह रतनपुर के शासक थे। वे 60 वर्ष के थे और इकलौते बेटे की मृत्यु होने के कारण बहुत ही पीड़ित थे। युद्ध करने की मानसिक स्थिति नहीं थी उनकी और उन्होंने आत्मसमपंण कर दिया।
सन् 1741 से सन् 1758 तक मोहन सिंह नाम के एक व्यक्ति को नया शासक नियुक्त किया गया। उसकी जब मृत्यु हो गई, तब भोंसला ने वहाँ अपना शासन स्थापित किया। प्रत्यक्ष शासन जिसे कहेंगे हम और इस प्रकार छत्तीसगढ़ का पहला मराठा शासक बिम्बाजी भोंसला हुआ। ये थी रतनपुर की कहानी। रायपुर शाखा में उस वक्त अमरसिंह, हैदय वंश के शासन कर रहे थे। उनको राजिम रायपुर और पाटन के परगने देकर मराठा उनसे
7000 रु हर वर्ष लेने लगे। अमरसिंह की मृत्यु के बाद उसका बेटा शिवराजसिंह जब राजा बना भोंसले ने उसकी जागीरें छीनकर उसे पाँच गाँव देकर सन् 1757 में रायपुर में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया।
यह नया शासनकाल सन् 1854 तक चलता रहा ।
बिम्बोजी भोंसला के शासनकाल में रायपुर और रतनपुर में संगीत एवं साहित्य का विकास हुआ। भवन-निर्माण हुआ, रायपुर का दूधाधारी मंदिर उनके सहयोग से बना था। रतनपुर की रामटेकरी पर एक राम मन्दिर का निर्माण करवाया। शायद इसीलिए वे अत्यन्त लोकप्रिय हो गये और यहाँ की राजनीति में जो परिवर्तन लाया गया, उसे लोगों ने चुपचाप स्वीकार कर लिया। बिम्बोजी भोंसला ने रतनपुर और रायपुर को प्रशासनिक दृष्टि से एक राज्य बनाकर उसे छत्तीसगढ़ राज्य की संज्ञा प्रदान की।
मराठी संस्कृति के कुछ चीजें छत्तीसगढ़ में भी प्रचलित हो गई - जैसे विजया दशमी पर्व पर "सोने का पत्र" देना ।
छत्तीसगढ़ में मराठी मोड़ी और उर्दू भाषा का प्रयोग भी बिम्बोजी भोंसला ने करवाया। इसी कारण छत्तीसगढ़ में मराठी बोलने वालों की सँख्या अभी भी काफी है। उर्दू भाषा समझने वाले लोग काफी सँख्या में है।
रतनपुर राज्य का प्राचीन वैभव धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। बिम्बोजी भोंसला की मृत्यु के बाद जब व्यंकोजी राजा बने, तो उन्होनें नागपुर से ही छत्तीसगढ़ का शासन चलाने का निश्चय किया। इससे पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर में रहकर ही शासन किया जा रहा था। धीरे-धीरे नागपुर बन गया छत्तीसगढ़ की राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र। रतनपुर का राजनीतिक परिचय भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
छत्तीसगढ़ के शासन को इस नये भोंसला राजकुमार ने सूबेदार के माध्यम से चलाने लगे। इसी तरह छत्तीसगढ़ में सूबेदार की परम्परा शुरु हुई - "सूबा-सरकार"। रतनपुर था सूबेदार का मुख्यालय और पूरे क्षेत्र का शासन यहीं से संचालित होता था।
यह प्रणाली सन् 1787 से 1818 ई. तक चलती रही।
एक यूरोपीय यात्री कैप्टन ब्लंट 1795 में रतनपुर और रायपुर में आये थे। उनका कहना था कि रतनपुर एक बिखरता हुआ गाँव प्रतीत हुआ जहाँ लगभग एक हज़ार झोंपड़ियाँ थी - (अरली यूरोपियन ट्रेवला, पृ. 120 )। इससे पता चलता है कि रतनपुर के विकास की ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था। रायपुर के बारे में लिखते हैं कैप्टन ब्लंट कि रायपुर एक बड़ा शहर प्रतीत हुआ जहाँ लगभग तीन हज़ार मकान थे। ऐसा लगता है कि रायपुर बहुत पहले से ही एक बड़ा शहर था और इसीलिये शायद अँग्रेजों ने रायपुर को छत्तीसगढ़ की राजधानी बनाया।
छत्तीसगढ़ में "सुबा-सरकार" स्थापित कर मराठा शासक उसके माध्यम से धन वसूल कर नागपुर भेजा करते थे । छत्तीसगढ़ के हिन के लिए शासन की स्थापना नहीं हुई थी।
एक और तरीका था जिसके माध्यम से मराठा शासक किसानों को सरकार पर आश्रित रखते थे - पैसों के स्थान पर कर के रुप में किसानों से अनाज लिया जाता था। अनाज की बिक्री की कोई उचित व्यवस्था नहीं थी। छत्तीसगढ़ का अनाज नागपुर भेजा जाता था। पर यातायात की कठिनाई के लिए दूसरी जगह ले जाने में बहुत ज्यादा खर्च होता था। किसान जब अपने गाँव में ही अनाज बेचते तो उन्हें उचित मूल्य भी नहीं मिलती। सूबा शासन के दौरान छत्तीसगढ़ में लोग कठिनाईयों से परेशान हो गये।
अंकोजी भोंसला के बाद रघुजी द्वितीय अप्पा साहब - ऐसा कहा गया ऐतिहासिकों द्वारा कि - कभी भी जन शिक्षा और सुरक्षा की जरुरतों की ओर ध्यान नहीं दिया। उनकी मूल प्रवृत्ति सैनिक थी। असल में वे हमेशा युद्धों में फँसे रहते थे और इसीलिये जनता के बारे में सोचने के लिए जो वक्त चाहिये, वह उनके पास नहीं था।
छत्तीसगढ़ी के ज्यादातर लोगों की जीविका का आधार कृषि था। प्रमुख उपज - चावल, गेहूँ, चना, कोदो, दाल पर अनाज की बिक्री का कोई सही व्यवस्था न होने के कारण किसानों को बहुत ही कष्ट का सामना करना पड़ता था पर किसानों को अपनी मजबूरी के कारण ही एक जगह से दूसरे जाना पड़ता था। और एक समस्या थी कि यहाँ के कृषक बहुत जल्दी एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान को चले जाते थे। इसी कारण कृषि योग्य भूमि का समुचित विकास नहीं हो सका। और एक समस्या जो आज भी हर गाँव में किसानो को सामना करना पड़ता है - वह है साहुकारों से ॠण लेने के लिए किसान को अपनी जायदाद गिरवी में रखनी पड़ती थी। इसीलिए बहुत जल्दी उनकी ज़मीन बेदखल हो जाती थी।
भौगोलिक सीमा की दृष्टि से अगर देखा जाये तो हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ चारों ओर पर्वतों से घिरा हुआ है। इसका मध्य भाग जो है वह है मैदानी। इसीलिये यहाँ प्रकृति के निकट रहने वाले की सँख्या को प्राकृतिक सुरक्षा प्राप्त है। छत्तीसगढ़ में नागरिक सभ्यतायें दिखती है और साथ-साथ आख्यक सभ्यतायें देखने का अवसर मिलता है। आरण्यक सभ्यताओं में हमें उदारता सहिष्णुता को देख कर - ताज्जुब होना पड़ता है। ये सभ्यताओं को कोई नष्ट नहीं कर पाये। ये एक खास बात है।