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छत्तीसगढ़ की सुआ नृत्य परंपरा एवम पद्धति।


सुआ नृत्य  -


सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य की स्त्रियों का एक प्रमुख है, जो कि समूह में किया जाता है। स्त्री मन की भावना, उनके सुख-दुख की अभिव्यक्ति और उनके अंगों का लावण्य 'सुवा नृत्य' या 'सुवना' में देखने को मिलता है। 'सुआ नृत्य' का आरंभ दीपावली के दिन से ही हो जाता है। इसके बाद यह नृत्य अगहन मास तक चलता है।

नृत्य पद्धति -


वृत्ताकार रूप में किया जाने वाला यह नृत्य एक लड़की, जो 'सुग्गी' कहलाती है, धान से भरी टोकरी में मिट्टी का सुग्गा रखती है। कहीं-कहीं पर एक तथा कहीं-कहीं पर दो रखे जाते हैं। ये भगवान शिव और पार्वती के प्रतीक होते हैं। टोकरी में रखे सुवे को हरे रंग के नए कपड़े और धान की नई मंजरियों से सजाया जाता है। सुग्गी को घेरकर स्त्रियाँ ताली बजाकर नाचती हैं और साथ ही साथ गीत भी गाये जाते हैं। इन स्त्रियों के दो दल होते हैं।[1] पहला दल जब खड़े होकर ताली बजाते हुए गीत गाता है, तब दूसरा दल अर्द्धवृत्त में झूककर ऐड़ी और अंगूठे की पारी उठाती और अगल-बगल तालियाँ बजाकर नाचतीं और गाती हैं-

'चंदा के अंजोरी म
जुड़ लागय रतिहा,
न रे सुवना बने लागय
गोरसी अऊ धाम।
अगहन पूस के ये
जाड़ा न रे सुवना
खरही म गंजावत हावय धान।'

सुआ गीत -


सुआ गीत की प्रत्येक पंक्तियाँ विभिन्न गुणों से सजी होती है। प्रकृति की हरियाली देखकर किसान का प्रफुल्लित होता मन हो या फिर विरह की आग मे जलती हुई प्रेयसी की व्यथा हो, या फिर ठिठोली करती ग्राम बालाओं की आपसी नोंक-झोंक हो या फिर अतीत की विस्तार गाथा हो, प्रत्येक संदर्भ में सुआ मध्यस्थ का कार्य करता है
विदाई गीत
सुआ नृत्य के आयोजन में घर की मालकिन रुपया और पैसा अथवा धान या चावल आदि देकर नृत्य समूह को विदा करती है। तब सुआ नृत्य की टोली विदाई गीत का गान करती है-

डॉक्टर एलविन सुआ नृत्य की तुलना धीर-गंभीर सरिता से करते हैं। क्योंकि इसमें कहीं भी क्लिष्ट मुद्राएँ नहीं होती। कलाइयों, कटि प्रदेश और कंधे से लेकर बाहों तक सर्वत्र गुलाइयाँ बनती हैं।छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के अध्येता पंडित अमृतलाल दुबे के अनुसार, इसमें संगीत की काशिकी वृत्ति चरितार्थ होती है। सुआ गीत मुक्तक भी है और प्रबंधात्मक भी।

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